उत्तर प्रदेश ज.मिर्जापुर आज के दौर में भी हॉफ (आधा ) त्रेतायुग तो दिखाई पड़ता है लेकिन हॉफ नदारद ही रहता है हर क्षेत्र में समस्याएं लंका मॉडल सुरसा बनकर हनुमान जी के इंतजार में फुल मोड में मुंह बाए खड़ी दिखती है पर कोई हनुमान नहीं दिख रहा है और ।

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जिले की चिट्ठी : बांचे सलिल पांडेय, मिर्जापुर
समस्याएं लंकावाली सुरसा तो दिख रही पर हनुमान बनने को कोई तैयार नहीं !

उत्तर प्रदेश ज.मिर्जापुर आज के दौर में भी हॉफ (आधा) त्रेतायुग तो दिखाई पड़ता है लेकिन हॉफ नदारद ही रहता है हर क्षेत्र में समस्याएं लंका मॉडल सुरसा बनकर हनुमान जी के इंतजार में फुल मोड में मुंह बाए खड़ी दिखती है पर कोई हनुमान नहीं दिख रहा है। रामनामी ओढ़े बहुतेरे दिख रहे पर रावण से लड़ने-भिड़ने की ताकत वाला कोई कृपालु नहीं प्रकट हो रहा है।

जाने कहाँ गए वो दिन.

1970-72 का दौर था। कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी । सत्ता से कोसों दूर विपक्ष में भारतीय जनसंघ था । घण्टे-दो घण्टे के लिए बिजली गायब क्या हुई कि उन दिनों भारतीय जनसंघ के सर्वमान्य नेता भगवानदास बरनवाल के बाद नगरपालिका के अध्यक्ष त्रिलोकीनाथ पुरवार के नेतृव में जुलूस ‘बिजली-पानी दे न सके जो, वह सरकार बदलनी है’ के नारे के साथ कचहरी तक धमक पड़ता था। आजादी के बाद के सर्वाधिक तपे-तपाए कलेक्टर शांतिप्रकाश जैन तक हिलने लगते थे। पुरवार जी के साथ इस पार्टी के स्तंभों में विन्ध्याचल मिश्र, गणेश खत्री, आशाराम यादवेश, प्रेम दीक्षित, रामजी सिंह गौतम (अब सभी स्वर्गीय) तथा उन दिनों के युवानेता डॉ सरजीत सिंह डंग, प्रेम लुण्डिया आदि इन जुलूसों में अगली पंक्ति में रहते थे। मामला केवल बिजली ही नहीं, किसी भी प्रकार जनता के कष्ट का मामला रहता था, चोरी या अन्य आपराधिक घटनाएं होती थीं तो विपक्ष की भूमिका में भारतीय जनसंघ सशक्त रोल अदा करती थी। ‘चारो ओर अंधेरा है-पहरेदार लुटेरा है’ नारा भी काफी लोकप्रिय था उन दिनों।

सत्तापक्ष के भी नेता वसूलों पर अड़े रहते थे

ऐसा नहीं कि सत्तापक्ष सोया ही रहता था। उन दिनों मुख्यमंत्री रहे कमलापति त्रिपाठी के पुत्र लोकपति त्रिपाठी के इर्द-गिर्द कांग्रेस दिखाई पड़ती थी। सरकारीतंत्र इनकी टीम को तवज्जह देता था फिर भी सांसद रहे अज़ीज इमाम और MLC रहे उमाकान्त मिश्र तक जनसमस्याओं को लेकर प्रशासन का दरवाजा खटखटाने में पीछे नहीं रहते थे। कांग्रेस के शीर्ष नेता अमरेशचन्द्र पांडेय के दरबार में हर दिन समस्याएं लेकर लोग आते और उसका समाधान होता है। जिला पंचायत के अध्यक्ष रहे राजा श्रीनिवास प्रसाद सिंह के कक्ष में ठीकेदारों के घुसने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। स्थिति तो यहां तक आई कि पहली बार DM को हटाने के लिए कांग्रेसी होते हुए अधिवक्ता रमेश चन्द्र शुक्ल 7 दिनों तक आमरण अनशन पर बैठ गए। वे जिस दफ़्तर में जाते थे, अफरातफरी मच जाती थी । उस तरह का आमरण अनशन फिर कभी जिले के लोगों ने नहीं देखा। प्रतिदिन मेडिकल टेस्ट होता था। अंत में प्रशासन को झुकना पड़ा था। लोगों में स्व अरुण कुमार दुबे के प्रति भी गहरा विश्वास रहता था कि उनके कान में कोई बात गई तो निराकरण जरूर होगा। कुछ वर्षों बाद माताप्रसाद दुबे भी उग्र नेताओं में शामिल हो गए थे।

निधि ने बदल दी नीति और नीयत

वर्ष 1990 के आसपास जब से सांसदों और बाद में विधायकों के लिए विकास निधि आ गई तब से नीति और नीयत बदलने लगी। अधिकांश पर उंगली उठने लगी कि या तो वे ठीकेदारी खुद कर रहे या हिस्सेदारी निभा रहे। 5 से 10% तक शुरू कमीशन का खेल वर्तमान में 30 से 40% तक पहुंचने का हो-हल्ला रहता है। इसे सही तो देने-लेने वाले की आत्मा ही जानेगी। कुछ ने निधि के कमीशन को ठुकराया भी है। उनका नाम लोग फक्र से लेते भी हैं।

जहां से चले थे, वहीं के वहीं रहे

जमाना तेजी से बदला है। हर क्षेत्र में आदर्श भरभरा कर धराशायी होते लोग देख ही रहे हैं। शासकीय सेवा में यदि साइकिल से दफ्तर जाना शुरू किया तो रिटायरमेंट तक वही साइकिल रही। राजनीति में भी राजनेताओं की जीवनशैली में वही स्थिति रहती थी। कोई बदलाव नहीं दिखता था, पर अब तो तमान चपरासी तक फोर ह्वीलर पर घूमते दिख जाएंगे। बेसिक स्कूल के मास्टर साहबों का पूछना ही क्या ? राजनीतिक क्षेत्र में 70% प्रधान चार पहिया वाले हैं। ये सब अपात्र होकर भी कोटे की दुकान से गरीबी रेखा का अनाज ले रहे है।

विकास-निधि के गर्भ से ठीकेदारों का जन्म धड़ाधड़ हो रहा

ठीकेदारी को लेकर जबरदस्त आकर्षण बढ़ा है। ख़ासकर इन दिनों कार्यदाई संस्थाओं में ठीकेदारी के रजिस्ट्रेशन की होड़ लगी है। माना जा रहा कि रजिस्ट्रेशन होते ठीकेदार की सात पीढ़ी की गरीबी रसातल में चली जाएगी। विकास-निधि के गर्भ से ठीकेदारों का जन्म धड़ाधड़ हो रहा है।
बहरहाल आज की चिट्ठी यही समाप्त की जाती है।

प्रधान सम्पादिका गुड़िया

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