उत्तर प्रदेश ललितपुर में मनाइ जा रही जयंती विशेष सूर्यकांत त्रिपाठी निराला क्रांतिकारी विचार और मर्मभेदी दृष्टि के धनी थे की जयंती मनाई जानेे पर और ।

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उत्तर प्रदेश ललितपुर में मनाइ जा रही जयंती विशेष सूर्यकांत त्रिपाठी निराला क्रांतिकारी विचार और मर्मभेदी दृष्टि के धनी थे की जयंती मनाई जानेे पर और ।

जयंती विशेष सूर्यकांत त्रिपाठी निराला क्रांतिकारी विचार और मर्मभेदी दृष्टि के धनी थे की जयंती मनाई जानेे पर और ।
निराला जी जैसे क्रांतिकारी कवि यदा कदा ही पृथ्वी पर दिखाई देते हैं
ललितपुर। महाकवि निरालाजी की जयंती पर आयोजित परिचर्चा में बोलते हुए नेहरू महाविद्यालय ललितपुर के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि निरालाजी महामानव के रूप में भारत भूमि पर अवतरित हुए। उनके अंदर अंत तक जीवन ही जीवन व्याप्त था। हृदय में अनंत गतिशीलता थी और वाणी में अद्भुत ओज था। उनमें आंधी की गति थी। जैसे एक व्यक्ति ऊपर चढऩे के लिए सीढ़ी छोड़कर छलांग लगाता चलता है। ऐसे ही वे डायनामिक पर्सनालिटी के धनी थे। वे स्वयं अपने को चंचल गति सुर सरिता कहते थे। मानवीय मर्यादा के विरुद्ध किसी भी बड़े से बड़े व्यक्ति का डट कर विरोध करने में वे कभी चूकते नहीं थे। यद्यपि उनका हृदय फूलों के पराग से भी कोमल था। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, कोमलकांत, माधुर्य गुण से ओतप्रोत थी। किंतु अन्याय और विषमता देखकर वह इतने क्रोधान्ध हो उठते थे कि उनकी कुकुरमुत्ता कविता में गुलाब को फटकार लगाते हुए वह बाजार की भाषा का इस्तेमाल करते हुए भी चूकते नहीं थे। यथा अबे सुन वे गुलाब, भूल मत गो खुशबू, रंगो आब। खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट। कवि की यही व्यवहारिक भाषा 1935 की रचना वह तोड़ती पत्थर में दिखलाई पड़ती है, जिसमें एक मजदूर नही की व्यथा-कथा का इतना गहरा मार्मिक चित्रण है कि कविता के अंत में कवि, श्रमिका के साथ इतना एकाकार हो उठता है कि उससे एकजुट होकर कहता है, मैं तोड़ती पत्थर। निश्चित ही वे युगान्तकारी कवि थे। उनकी 1916 लिखी जूही की कली कविता आज भी छायावाद की श्रेष्ठतम कविता में गिनी जाती है।उनकी काव्यसाधना निरंतर 1958 तक चलती रही। शोषण के विरुद्ध विद्रोह और और मानव के प्रति एकजुटता उनके काव्य का मूल स्वर है। निरालाजी की भिक्षुक कविता वह आता, पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक। चल रहा लकुटिया टेक। साथ में दो बच्चे भी हैं। यानी परदादा, दादा, पापा के जमाने से इन्सान के एक ही नहीं, दो नन्हें फरिश्ते क्या भीख माँगने पर ऐसे ही लाचार रहेंगे ? जबकि समकालीन युग में शिक्षा के अधिकार का कानून 1 से 14 साल तक फ्री और अनिवार्य (कक्षा 1से 8 )तक की शिक्षा की गारंटी देता है। भिक्षुकों के इसी त्रासद चित्र में निराला जी कहते हैं कि दाता भाग्य विधाता से क्या पाते? यही कि बच्चे झूठी पत्तल चाट रहे हैं साथ ही कुत्ते भी उनकी ओर झपट रहे हैं। भूख के माध्यम से मनुष्य और जानवर एक साथ खड़े हुए हैं। इस त्रासदी स्थिति का खात्मा रामराज्य की स्थापना से ही हो सकता है। बशर्ते भगवान राम की तरह न्याय और समता आधारित फिर से संघर्ष की विजयांतक परिणिति हो जाए।

रिपोर्ट सुरेन्द्र सपेरा

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